आम के बौर की ख़ुश्बू का क़तरा,
बसंत, थाली में कुछ यूँ सजा कर लाता है,
कि बचपन कानों में गुनगुना जाता है।
भोर की लाली की चादर आसमान, झटक कर जब फैलाता है,
उम्र की परतें यूँ खुल सी जाती हैं अंगड़ाइयों के संग,
कि बचपन फिर गुदगुदा जाता है।
इच्छाओं के पंख लगा मन , दूर क्षितिज तक जाता है,
परिंदों के संग होड़ लगा यूँ साँझ ढले घर आता है,
कि फिरसे बचपना जगा जाता है।
बगल वाले घर में वो छोटी लड़की ‘गुड़िया का घर’ सजाती है,
‘गुड़िया’ के सँवरने में, ‘घर’ के सजने में स्वाद चखती हूँ भोलेपन का मैं,
और बचपन फिर से मन को सहला जाता है।
पावँ मे जैसे तितली कि वो छमछम सी हो झुनझुन
सुबह की चँचल सी धूप छाँव की जैसे हो रुमझुम
बसन्त की सुनहरी भौर मे खिल्ता हुआ सा गुल।ब्
बछ्पन को दे जाता हो जैसे प्यार का सुहाना सैलब्
@copyright Flora Jha
Hello Flora,
Couldn’t have asked for a sweeter comment on this post. Thank you ! These words surely invoke emotions hidden somewhere deep!
Love