
TL;DR↑
जीवन ने एक अजीब सी करवट ले ली है,
कुछ एक दशक की बात है बस ,
दिलों से किताबों और फिर कब,
इंटरनेट के पेज पर उतर गए रिश्ते – पता ही नहीं चला !
सुबह की चाय के साथ वाला और खामोशी से पकड़े हाथ वाला स्नेह ,
नितांत व्यक्तिगत और अपना सा प्रेम ,
इंस्टा और फेसबुक पर परचम सा लहराते हुए,
कब ‘पब्लिक’ हुआ -पता ही नहीं चला !
‘लाइक्स’ और ‘कमेंट्स’ की वीथियों से गुज़रता हुआ,
एक अलग ही पहचान बनाता हुआ ,
इन्हीं वीथियों को कब प्रेम,
अपना मानदंड बना गया- पता ही नहीं चला !
प्रकृति भी थोड़ी अचंभित सी है,
उसकी सुंदरता को लोगों ने अपलक निहारना छोड़ दिया है ,
कब वह केवल फ़ोन में बंद तस्वीर हुई,
और धीरे से ‘अपलोड’ हुई – पता ही नहीं चला !
होली के रंग , दिवाली के दीये , सब साझा होते हैं,
बड़े जतन से ‘इंस्टा’ वाले अकाउंट पर,
इंटरनेट की भीड़ से, बड़े मनोयोग से संवाद करते हुए,
कब हम अकेले हुए -पता ही नहीं चला !
जीवन की पतंगें उड़ती हैं अब ‘ऑनलाइन’ के आकाश में ,
‘अपनी’ और ‘उनकी’ पतंगों की तुलना में इतने व्यस्त हो जाते हैं,
कि ‘ऑफलाइन’ की दुनिया में मांझा कब हाथों से छूटा,
और डोर उलझती चली गई – पता ही नहीं चला !
Copyright © Aradhana Mishra
दिल के छू ज्या बला कविता,बहुत नीक ,अपना क धन्य बुझइ छी।
बहुत धन्यवाद ! 🙂
बहुत खूब , कटु सत्य
Lovely aradhna!! You exude positivity.
Thank you Keerti…For positivity, suppose it’s lot to do with the company one keeps!
आपके शब्द बेख़बर सीधे दिल में उतर गये
और हमें पता ही नहीं चला…..
…और हम कब आपकी दोस्ती की गहराई में उतर गए,पता ही नहीं चला!!! धन्यवाद।
कब इस इन्टरनेट ने फासलों को मिटा दिया पता ही नहीं चला।Beautifull!!!
Thank you Mrs Sharma! And yes, I do concede that internet has brought with it some sunshine too! now more people stay connected … at least through these mediums ! 🙂
Regards
दिल को हौले से झकझोर गई आपकी यह कविता!
आज के तकनीकी दौर और भौतिकवाद की चकाचौंध में दम तोड़ती मानव-सुलभ संवेदनाओं को बड़े ही नफ़ासत से आपने शब्दों से सँवारा है।
बेशक,इंटरनेट के अभूतपूर्व विस्तार ने लोगों को निकट लाने में अमूल्य योगदान दिया हो,मगर इस सामीप्य में भी दूरी का अहसास क्यों है,संबंधों में वो पहली सी खुश्बू और मिठास का अभाव क्यों है,सब कुछ इतना सतही और खोखला क्यों है……..ऐसे न जाने कितने ही प्रश्न यदा कदा दिल की दहलीज पर नज़र आ ही जाते हैं ।
अंत में ………..
अपने ही बुने जाल में कब कैद हो गया हंसें
……..पता ही नहीं चला।
कैद हो गया इंसां
दिल को हौले से झकझोर गई आपकी यह कविता।
आज के तकनीकी दौर और भौतिकवाद की चकाचौंध में दम तोड़ती मानव-सुलभ संवेदनाओं को बड़ी ही नफ़ासत से आपने शब्दों से उभारा है।
बेशक,इंटरनेट के अभूतपूर्व विस्तार ने लोगों को निकट लाने में अमूल्य योगदान दिया हो मगर इस सामीप्य में भी दूरी का अहसास क्यों है,संबंधों में वो पहली सी खुश्बू और मिठास का अभाव क्यों है सब कुछ इतना सतही और खोखला क्यों है …….ऐसे न जाने कितने ही प्रश्न यदा कदा दिल की दहलीज पर नजर आ ही जाते हैं ।
अंत में ………
अपने ही बुने जाल में कब कैद
हो गया इंसां ……..पता ही नहीं चला ।
आपके प्रेरणादायी शब्दों के लिए आपका अत्यंत आभार। पाठक के शब्द हमेशा ही लेखक के लिए महत्वपूर्ण होते हैं, परन्तु पाठक अगर आपकी तरह प्रबुद्ध हो तो उन शब्दों की अहमियत बढ़ जाती है। इस परिप्रेक्ष्य में मैं शायद अपने ही लिखे शब्दों के विपरीत जाऊँगी अगर यह कहूं कि मैं सदैव इस इंटरनेट की आभारी रहूंगी जिसने मेरा आप जैसे पाठकों से परिचय करवाया।
परन्तु यह तथ्य कि इसने हमारी संवेदनाओं के अस्तित्व के आगे प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया है, अब एक यथार्थ है और अब हम चाहे-अनचाहे इस यथार्थ को जीने के लिए विवश हैं. आपने उचित ही कहा- अपने ही बने जाल में कब कैद हो गया इंसान- पता ही नहीं चला !
As always you touched my heart through your words n took us to the forgotten lanes of readings n writings.keep writing n touching our lives with your beautifully crafted words.
Hello Parul,
It’s always a pleasure to read comments that’s straight from the heart. Glad that you like and connect with what I write! My readers and their encouraging words are my only incentive ! Thank you !